Raipur (CG news focus): नेता बनना आज के समय में कठिन नहीं रहा — चुनाव जीतकर विधायक बन जाना और फिर मंत्री पद की शपथ लेना अब राजनीति का सामान्य क्रम बन चुका है। लेकिन जो बात कहीं ज्यादा जरूरी है, वह है जनसेवा और जनता के प्रति व्यवहार। दुर्भाग्यवश, सत्ता में आने के बाद कई नेता यह मूल मंत्र भूल जाते हैं।
वोट मांगते समय जो नेता जनता के दरवाजे-दरवाजे पहुंचते हैं, वही सत्ता में आने के बाद आम लोगों से मिलने तक के लिए समय नहीं निकालते। यह रवैया लोकतंत्र की आत्मा पर आघात करता है। खासकर तब, जब कोई व्यक्ति सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर, किसी उम्मीद और समस्या के समाधान की आस लिए आपके पास आता है — और फिर उसे घंटों इंतजार कराया जाता है, या मिलने तक का मौका नहीं दिया जाता।
ऐसा नहीं है कि वह व्यक्ति किसी निजी स्वार्थ से आया हो। वह एक कार्यकर्ता हो सकता है, शुभचिंतक हो सकता है, या फिर कोई आम नागरिक जिसे अपने क्षेत्र की किसी गंभीर समस्या को लेकर आपसे मदद की अपेक्षा है। उसकी यह उम्मीद सिर्फ आपकी कुर्सी या पद की वजह से नहीं होती, बल्कि इसलिए होती है कि आपने एक जनप्रतिनिधि होने का वादा किया था। लेकिन जब वही व्यक्ति उपेक्षा का शिकार होता है, तो यह आपके व्यवहार और राजनीतिक संस्कृति पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
नेताओं को समझना होगा कि जनता से दूरी बनाना, या उन्हें नजरअंदाज करना, लोकतांत्रिक जिम्मेदारी से पलायन है। सत्ता और प्रतिष्ठा क्षणिक हैं — लेकिन जनता का विश्वास स्थायी हो सकता है, यदि उसका सम्मान किया जाए।
राजनीति केवल कुर्सी की चाबी नहीं है, यह सेवा का माध्यम है। नेताओं को यह सीखने की जरूरत है कि बड़े ओहदे का मूल्य छोटे व्यवहार में छुपा होता है। जनता से संवाद, समय और सम्मान देना सिर्फ औपचारिकता नहीं, एक जिम्मेदारी है। अगर इस जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया गया, तो जनता अगली बार जवाब देना अच्छी तरह जानती है।
- जनसेवक का आचरण ही असली पहचान।
- आमजन की उपेक्षा, राजनीतिक पतन की शुरुआत।
- सत्ता नहीं, सेवा की राजनीति होनी चाहिए प्राथमिकता।
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